Wednesday, May 19, 2010
निंदिया
दिन की रौशनी में,
दफ़न किये फिरते हैं, जिन यादों को दिल के किसी कोने में....
दुनिया के शोर के तले,
दबाये फिरते हैं, जिन तनहियों का शोर.....
छुपते फिरते हैं,
जिन मंज़रों से हम, दुनिया की इस भीड़ की ओट liye ...
फिर रूबरू होतें हैं उन्ही से, तनहा रातों में ,
जब फुस्फुता है सिरहाना कानो में फिर वाही बीतीं यादें,
जब मिलतीं हैं चादरों की सलवटों में छुपी वो यादें,
जो काँटों सी चुब कर,
करके आँखों को नम,
छोड़ जातीं हैं हमें इस इंतज़ार में की,
कब आकर थामेगी निंदिया रानी हमें,
और ले आएगी यादों की अँधेरे जंगल से परे
रौशनी के उजालों क तले|
रौशनी के उजालों क तले|
Sunday, May 16, 2010
अश्कों की ज़बां होती, अगर,
बिखर जाता रात का सन्नाटा,
टूटे कांच के टुकड़ों की तरह तितर बितर |
बयान कर पाते,
बिलखती रूह की दास्ताँ, अगर,
दे जातीं ज़ख्म इतनें,
चीर के रात का दमन,
चीखें इन आंसुओं की,
सुखा न पातीं जिन्हें मलहम कोई |
बहतें हैं, इसलिए ये आंसूं ,
गुपचुप अंधेरों में,
बहा ले जाने को,
रूह के इस दर्द भरे अफसाने को |
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